नाटक-एकाँकी >> घोड़े पै हौदा हाथी पर जीन घोड़े पै हौदा हाथी पर जीनभानु शंकर मेहता
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प्रस्तुत संग्रह में कहानियों के नाट्य रूपान्तर की चेष्टा की गई है, कुछ का तो मंचन भी किया है। ये सफल हैं या नहीं-यह आप निर्णय करेंगे, कहानी मंच के दर्शक तय करेंगे।
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
अपनी बात
मेरे एक गुरुजन स्व. प्रो. राजेन्द्रलाल मेढ़ ने एक बार मुझसे कहा था कि
कहानी का नाट्य रूपान्तर और उपन्यास का फिल्मीकरण आसान होता है। कहानी
श्रव्य होती है और उपन्यास दृश्य। यह बात मेरे मन में बैठ गयी। बहुत पहले
घर के मंच पर ‘काबुली वाला’ खेला था, फिर मेडिकल
कॉलेज में डॉ. रशीदजहाँ कृत प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’
का नाट्य रूपान्तर मंचित किया। सन् 1958 में नागरी नाटक मंडली की स्वर्ण
जयंती के अवसर पर कई कहानियाँ मंचित हुईं-क्षुधित पाषाण, महेश, आकाशदीप,
मसूरीवाली, डमीउवाच, पत्थर के देवता, आओ हमारे होटल में, हार की जीत,
शतरंज के खिलाड़ी। फिर पं. सीताराम चतुर्वेदी द्वारा प्रस्तुत
प्रसाद की कहानी ‘गुंडा’ का सफल मंचन हुआ। आगे श्री
देवेन्द्रराज अंकुर द्वारा स्थापित ‘कहानी के रंगमंच’
की स्थापना के दर्शन किये और एक सफल प्रयोग भी देखा।
कहानी को नाटक बनाने में रंगमंच की अनेक विधायें सहायक हो सकती हैं यथा-छाया नाटक, कठपुतली नाटक, ध्वनिरूपक, नुक्कड़ नाटक, टेलीविजन नाटक, एकल नाटक, लोकनाट्य, मार्गीय एकांकी और ‘लीला’। नाटक की अनेक शैलियाँ उपलब्ध हैं-जैसे संस्कृत नाटकों का (भरत और कालिदास का मंच), नौटंकी तथा अन्य लोकनाट्य मंच, पारसी थियेटर, आधुनिक भारतीय (बांग्ला, मराठी, गुजराती हिंदी) मंच, इफ्टा का मंच, बेख्त का मंच, स्टानिस्लवास्की का मंच, जापानी काबुकी और नो का मंच, आइनेस्को का मंच, शेखनर का मंच इत्यादि। किस्सा कोताह किसिम-किसिम के नाटक होते हैं और उन पर विधिवत् लिखे नाटक तो मंचित होते ही हैं, कभी-कभी कहानी भी मंचित होती है तो अच्छा लगता है। एक फिल्म में ऑस्कर वाइल्ड की तीन कहानियाँ देखी थीं, इसी तरह टीवी पर टॉलस्टॉय की कहानियाँ दिल को छू गयीं, दूरदर्शन ने प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ प्रस्तुत की तो सहजबोध हो गया कि कहानी मंच को अच्छी कथा दे सकती है।
विश्व-साहित्य में हजारों अच्छी कहानियाँ हैं जिनमें से सैकड़ों मंच पर सफलतापूर्वक साकार हो सकती हैं। नये प्रयोग के लिए बहुत बड़ा आयाम खुलता है-नाटककारों के लिये भी, नाटक करनेवालों के लिये भी।
‘कोलाज’ और पैण्टोमाइस की विधाएँ भी हैं और उनका सफल प्रयोग हो सकता है। मुझे ‘मदर टेरेसा’ की जीवनी पर और फ्लोरेस नाइटेंगेल की जीवनी पर प्रस्तुत मंचन देखने का अवसर मिला और उनसे काफी प्रभावित हुआ।
मुझे अक्सर खयाल आता है कि बहुधा नाटककार के मन में एक कहानी जन्म लेती है और उसी ढाँचे पर नाटक बुन देता है। यह रचना-प्रक्रिया है जिसपर साहित्य शिल्पी साधिकार कुछ कह सकेंगे। रवीन्द्रनाथ के नाटकों का अध्ययन करते समय एक बात मेरे सामने आई कि वे सहज रूप से कहानियों का नाट्य रूपान्तर करते हैं। रवीन्द्रनाथ कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार, चित्रकार और रंगशिल्पी हैं अत: एक विधा से दूसरी में जाने में उन्हें कोई अड़चन नहीं आती। उनके नाटकों में आप देखें तो ‘विसर्जन’ उनके उपन्यास ‘राजर्षि’ का एक अंश है, चिरकुमार सभा उनके उपन्यास ‘प्रजापति’ निबन्ध का रूपान्तर है, ‘मुक्तिर उपाय’ इसी नाम की कहानी और ‘मुकुट’ इसी नाम के लघु उपन्यास का रूपान्तर है, गृहप्रवेश का स्रोत ‘शेषे रात्रि’ कहानी, शोधबोध का ‘कर्मफल’ कहानी, ‘नटीर पूजा’, पूजारिन काव्य का नाट्यरूपान्तर है। ‘रथेर रसी’ का पूर्व रूप रथयात्रा आलेख और सुप्रसिद्ध नाटक ‘ताशेर देश एकटि’ आषाढ़ेगल्प से प्रसूत हुआ है। रवीन्द्र बहुविधा के शिल्पी हैं अत: उन्हें रूपान्तर करने में दिक्कत नहीं हुई। उनकी अनेक कहानियाँ नाट्य रूपान्तरित हुई हैं, उन पर फिल्म बनी है। कुछ कविताएँ भी नृत्य नाट्य बन गयी हैं। मुझे लगता है रवीन्द्रनाथ मूलत: नाटककार हैं और वे जो कुछ लिखते हैं, नाटकीय होता है। मुझे नहीं मालूम अन्य लेखकों कहानीकार, उपन्यासकार आदि ने अपनी ही रचनाओं को नाट्य रूप दिया है या नहीं या यह रवीन्द्र की ही विशेषता रही। मजे की बात यह है कि आप चाहें तो उनके कुछ नाटकों को कथा या कहानी रूप दे सकते हैं। तीसरे संग्रह के अंत में मैने ‘चंडालिका’ को कथा रूप दिया है या कहे ‘कहानी बनते नाटक’ का प्रयोग किया है।
मेरे मन में एक विचार आता है कि हिंदी में ही हमारे यहाँ अनेक सफल कहानीकार हैं और कभी-कभी उनका स्मृति दिवस मनाने की इच्छा होती है। क्या हम किसी शाम लेखक की तीन कहानियों का मंचन करके उनको श्रृद्धा सुमन अर्पित नहीं कर सकते ? हम प्रसाद संध्या, प्रेमचन्द संध्या, रवीन्द्र संध्या, बनफूल संध्या मना सकते हैं पूरे भारतीय साहित्य को लें तो फिर साल में हर दिन कहानियों को मंचित कर सकते हैं। यह तो अटूट भंडार है लेकिन हम हैं कि खजाने की पेटी पर लेटकर विश्राम कर रहे हैं।
कहानी को नाटक बनाने में रंगमंच की अनेक विधायें सहायक हो सकती हैं यथा-छाया नाटक, कठपुतली नाटक, ध्वनिरूपक, नुक्कड़ नाटक, टेलीविजन नाटक, एकल नाटक, लोकनाट्य, मार्गीय एकांकी और ‘लीला’। नाटक की अनेक शैलियाँ उपलब्ध हैं-जैसे संस्कृत नाटकों का (भरत और कालिदास का मंच), नौटंकी तथा अन्य लोकनाट्य मंच, पारसी थियेटर, आधुनिक भारतीय (बांग्ला, मराठी, गुजराती हिंदी) मंच, इफ्टा का मंच, बेख्त का मंच, स्टानिस्लवास्की का मंच, जापानी काबुकी और नो का मंच, आइनेस्को का मंच, शेखनर का मंच इत्यादि। किस्सा कोताह किसिम-किसिम के नाटक होते हैं और उन पर विधिवत् लिखे नाटक तो मंचित होते ही हैं, कभी-कभी कहानी भी मंचित होती है तो अच्छा लगता है। एक फिल्म में ऑस्कर वाइल्ड की तीन कहानियाँ देखी थीं, इसी तरह टीवी पर टॉलस्टॉय की कहानियाँ दिल को छू गयीं, दूरदर्शन ने प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ प्रस्तुत की तो सहजबोध हो गया कि कहानी मंच को अच्छी कथा दे सकती है।
विश्व-साहित्य में हजारों अच्छी कहानियाँ हैं जिनमें से सैकड़ों मंच पर सफलतापूर्वक साकार हो सकती हैं। नये प्रयोग के लिए बहुत बड़ा आयाम खुलता है-नाटककारों के लिये भी, नाटक करनेवालों के लिये भी।
‘कोलाज’ और पैण्टोमाइस की विधाएँ भी हैं और उनका सफल प्रयोग हो सकता है। मुझे ‘मदर टेरेसा’ की जीवनी पर और फ्लोरेस नाइटेंगेल की जीवनी पर प्रस्तुत मंचन देखने का अवसर मिला और उनसे काफी प्रभावित हुआ।
मुझे अक्सर खयाल आता है कि बहुधा नाटककार के मन में एक कहानी जन्म लेती है और उसी ढाँचे पर नाटक बुन देता है। यह रचना-प्रक्रिया है जिसपर साहित्य शिल्पी साधिकार कुछ कह सकेंगे। रवीन्द्रनाथ के नाटकों का अध्ययन करते समय एक बात मेरे सामने आई कि वे सहज रूप से कहानियों का नाट्य रूपान्तर करते हैं। रवीन्द्रनाथ कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार, चित्रकार और रंगशिल्पी हैं अत: एक विधा से दूसरी में जाने में उन्हें कोई अड़चन नहीं आती। उनके नाटकों में आप देखें तो ‘विसर्जन’ उनके उपन्यास ‘राजर्षि’ का एक अंश है, चिरकुमार सभा उनके उपन्यास ‘प्रजापति’ निबन्ध का रूपान्तर है, ‘मुक्तिर उपाय’ इसी नाम की कहानी और ‘मुकुट’ इसी नाम के लघु उपन्यास का रूपान्तर है, गृहप्रवेश का स्रोत ‘शेषे रात्रि’ कहानी, शोधबोध का ‘कर्मफल’ कहानी, ‘नटीर पूजा’, पूजारिन काव्य का नाट्यरूपान्तर है। ‘रथेर रसी’ का पूर्व रूप रथयात्रा आलेख और सुप्रसिद्ध नाटक ‘ताशेर देश एकटि’ आषाढ़ेगल्प से प्रसूत हुआ है। रवीन्द्र बहुविधा के शिल्पी हैं अत: उन्हें रूपान्तर करने में दिक्कत नहीं हुई। उनकी अनेक कहानियाँ नाट्य रूपान्तरित हुई हैं, उन पर फिल्म बनी है। कुछ कविताएँ भी नृत्य नाट्य बन गयी हैं। मुझे लगता है रवीन्द्रनाथ मूलत: नाटककार हैं और वे जो कुछ लिखते हैं, नाटकीय होता है। मुझे नहीं मालूम अन्य लेखकों कहानीकार, उपन्यासकार आदि ने अपनी ही रचनाओं को नाट्य रूप दिया है या नहीं या यह रवीन्द्र की ही विशेषता रही। मजे की बात यह है कि आप चाहें तो उनके कुछ नाटकों को कथा या कहानी रूप दे सकते हैं। तीसरे संग्रह के अंत में मैने ‘चंडालिका’ को कथा रूप दिया है या कहे ‘कहानी बनते नाटक’ का प्रयोग किया है।
मेरे मन में एक विचार आता है कि हिंदी में ही हमारे यहाँ अनेक सफल कहानीकार हैं और कभी-कभी उनका स्मृति दिवस मनाने की इच्छा होती है। क्या हम किसी शाम लेखक की तीन कहानियों का मंचन करके उनको श्रृद्धा सुमन अर्पित नहीं कर सकते ? हम प्रसाद संध्या, प्रेमचन्द संध्या, रवीन्द्र संध्या, बनफूल संध्या मना सकते हैं पूरे भारतीय साहित्य को लें तो फिर साल में हर दिन कहानियों को मंचित कर सकते हैं। यह तो अटूट भंडार है लेकिन हम हैं कि खजाने की पेटी पर लेटकर विश्राम कर रहे हैं।
-भानुशकर
मेहता
कहानी का रंगमंच शिविर
उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी द्वारा प्रस्तावित प्रशिक्षण प्रस्तुति
योजना के अन्तर्गत मुझे लखनऊ की नाट्य-संस्था
‘लक्रीस’ द्वारा आयोजित शिविर के साथ सम्बद्ध होने का
अवसर मिला था। शिविर एक माह के लिए था और इसमें हिन्दी की तीन प्रसिद्ध
कहानियाँ ‘उसने कहा था’ (गुलेरी)
‘आकाशदीप’, (प्रसाद) और ‘कफन’
(प्रेमचन्द) मंच पर प्रस्तुत की गयी थीं। शिविर के साथ 19 जनवरी 76 से 26
फरवरी ’76 तक काम करने के बाद में अपने कुछ नितांत बेबाक विचार
आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।
यह शिविर चार सप्ताह के लिए था किन्तु अन्तत: पाँच सप्ताह तक चला। मैं इस बात पर जोर देना चाहूँगा कि ऐसे शिविर कम से कम छ: सप्ताह की अवधि के हों ताकि इस योजना के दोनों पक्षों यथा प्रशिक्षण एवं प्रस्तुति को पूरा समय दिया जा सके। अपने शिविर में इसीलिए मुझे प्रशिक्षण पक्ष को भी प्रस्तुति के साथ ही जोड़ना पड़ा था क्योंकि कम से कम चार सप्ताह तो प्रस्तुति के पूर्वाभ्यास के लिए भी चाहिए हीं।
शिविर का समय सायं 5 से 8 बजे तक रखा गया था जो लोगों के एकत्रित होने तक 5.30 पर ही शुरू हो पाता था। चूँकि शिविर में भाग लेने वाले अधिकांश छात्र या शौकिया कलाकार ही होते हैं, अत: यह अच्छा रहेगा कि ये शिविर उन दिनों आयोजित किए जाएँ, जिन दिनों प्राय: शिक्षण-संस्थाओं में अवकाश रहता है। इस दृष्टि से मई-जून, अक्टूबर और दिसम्बर का समय सबसे ज्यादा उपयुक्त रहेगा क्योंकि एक तो ज्यादा लोग भाग ले सकेंगे, दूसरे प्रशिक्षक को रोजाना मिलने वाली अवधि भी बढ़ाई जा सकेगी और यदि सभी लोग सहमत हों तो पूरे दिन भी उपयोग किया जा सकेगा।
इस प्रकार के शिविर का एकमात्र उद्देश्य यही है कि छोटे-छोटे नगरों के शौकिया रंगकर्मी अभिनय, निर्देशन, मंच-सज्जा, प्रकाश आदि के विषय में सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त करें। इसके लिए एक सुझाव यह भी है कि एक बड़ी प्रस्तुति तो हो, इसके साथ ही वहां के लोगों को भी अपनी देखरेख में दो-तीन छोटे-छोटे नाटक करने दिए जाएँ जो आपस ही में एक प्रशिक्षक का रोल अदा कर सकें।
मेरी दृष्टि में आप जिस जगह भी शिविर करें, कोशिश यही होनी चाहिए कि वहाँ उपलब्ध मंच-उपकरण प्रकाश-सामग्री मंच और अन्य चीजों के भीतर से ही शिविर की तमाम अपेक्षाएँ पूरी की जा सकें। एक तो यह आर्थिक दृष्टि से महँगा नहीं होगा, दूसरे हर इस उस चीज के लिए बाहर माँगने की हालत की शुरूआत नहीं होगी।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रशिक्षक निर्देशक को सीधे अकादमी द्वारा पारिश्रमिक की व्यवस्था है लेकिन पूरे शिविर के दौरान अनेक प्रकार के खर्च होते हैं जिसमें पूर्वाभ्यास के दौरान चाय-पानी से लेकर प्रस्तुति के सभी पक्षों से सम्बन्धित व्यय शामिल हैं। अत: जो भी संध्या शिविर आयोजित करें, अकादमी द्वारा इस आर्थिक पक्ष पर पहले ही जानकारी ली जानी चाहिए।
शायद कुछ नया या छोटी जगहों पर महिला कलाकारों को लेकर भी एक समस्या हो सकती है। इसका एक विकल्प यह हो सकता है कि दूसरे नगरों से शिविर तक की अवधि के लिए उन्हें बुलाया जा सके। लेकिन ऐसी स्थिति में उनके वहाँ रहने, आने-जाने आदि के व्यय को कौन वहन करेगा, इस विषय में अकादमी पहले ही निश्चित कर ले।
ऐसे शिविरों में प्राय: बिल्कुल नए लोग होते हैं जो शिविर की समाप्ति पर यह अपेक्षा रखते हैं कि उन्हें कोई प्रमाण-पत्र दिया जाए और उनकी यह अपेक्षा सही भी जान पड़ती क्योंकि यदि वे इसी दिशा में कुछ और आगे बढ़ना चाहेंगे तो इस तरह का प्रमाण-पत्र काफी सहायक हो सकता है।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि शिविर की अवधि के दौरान अकादमी द्वारा छोटे स्तर पर ही सही, एक अस्थायी पुस्तकालय की योजना को क्रियान्वित किया जा सके जिसमें कुछ नाटक और कुछ सैद्धांतिक पुस्तक उपलब्ध हों ताकि शिविर के दौरान एक रीडिंग सेशन के अन्तर्गत नए-पुराने नाटकों का पाठ करके उन्हें बहस का विषय बनाया जाए। प्रस्तुति के साथ-साथ इस तरह की समानान्तर गतिविधियों से शिविर को अधिक रोचक एवं जीवन्त बताया जा सकेगा।
इस प्रकार के शिविर में हुई प्रस्तुतियों को अकादमी द्वारा अलग-अलग स्थानों पर ले जाने की सुविधा होनी चाहिए। इससे दर्शक को कुछ न कुछ तो मिलेगा ही, स्वयं उन रंगकर्मियों की अपनी रंगदृष्टि में भी विस्तार होगा। अत: यह आवश्यक है कि इस प्रकार के शिविरों की परम्परा की जो शुरूआत अकादमी द्वारा हुई है उसे एक नियमित स्तर तक ले जाना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जहाँ एक व्यावसायिक रंगकर्मी के लिए अलग-थलग स्थानों पर नए-नए लोगों के साथ काम करने का अवसर उपलब्ध होता है वहाँ शौकिया रंगकर्मियों के लिए भी यह एक ऐसा अवसर प्रदान करेगा है जहाँ वे अपने रंगकर्मियों को अधिक गंभीरता एवं समझदारी के साथ निभाने की ओर कदम रख सकेंगे।
डी-305, सर्वोदय एनक्लेव,
श्रीअरविंद मार्ग,
नई दिल्ली-110017
यह शिविर चार सप्ताह के लिए था किन्तु अन्तत: पाँच सप्ताह तक चला। मैं इस बात पर जोर देना चाहूँगा कि ऐसे शिविर कम से कम छ: सप्ताह की अवधि के हों ताकि इस योजना के दोनों पक्षों यथा प्रशिक्षण एवं प्रस्तुति को पूरा समय दिया जा सके। अपने शिविर में इसीलिए मुझे प्रशिक्षण पक्ष को भी प्रस्तुति के साथ ही जोड़ना पड़ा था क्योंकि कम से कम चार सप्ताह तो प्रस्तुति के पूर्वाभ्यास के लिए भी चाहिए हीं।
शिविर का समय सायं 5 से 8 बजे तक रखा गया था जो लोगों के एकत्रित होने तक 5.30 पर ही शुरू हो पाता था। चूँकि शिविर में भाग लेने वाले अधिकांश छात्र या शौकिया कलाकार ही होते हैं, अत: यह अच्छा रहेगा कि ये शिविर उन दिनों आयोजित किए जाएँ, जिन दिनों प्राय: शिक्षण-संस्थाओं में अवकाश रहता है। इस दृष्टि से मई-जून, अक्टूबर और दिसम्बर का समय सबसे ज्यादा उपयुक्त रहेगा क्योंकि एक तो ज्यादा लोग भाग ले सकेंगे, दूसरे प्रशिक्षक को रोजाना मिलने वाली अवधि भी बढ़ाई जा सकेगी और यदि सभी लोग सहमत हों तो पूरे दिन भी उपयोग किया जा सकेगा।
इस प्रकार के शिविर का एकमात्र उद्देश्य यही है कि छोटे-छोटे नगरों के शौकिया रंगकर्मी अभिनय, निर्देशन, मंच-सज्जा, प्रकाश आदि के विषय में सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त करें। इसके लिए एक सुझाव यह भी है कि एक बड़ी प्रस्तुति तो हो, इसके साथ ही वहां के लोगों को भी अपनी देखरेख में दो-तीन छोटे-छोटे नाटक करने दिए जाएँ जो आपस ही में एक प्रशिक्षक का रोल अदा कर सकें।
मेरी दृष्टि में आप जिस जगह भी शिविर करें, कोशिश यही होनी चाहिए कि वहाँ उपलब्ध मंच-उपकरण प्रकाश-सामग्री मंच और अन्य चीजों के भीतर से ही शिविर की तमाम अपेक्षाएँ पूरी की जा सकें। एक तो यह आर्थिक दृष्टि से महँगा नहीं होगा, दूसरे हर इस उस चीज के लिए बाहर माँगने की हालत की शुरूआत नहीं होगी।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रशिक्षक निर्देशक को सीधे अकादमी द्वारा पारिश्रमिक की व्यवस्था है लेकिन पूरे शिविर के दौरान अनेक प्रकार के खर्च होते हैं जिसमें पूर्वाभ्यास के दौरान चाय-पानी से लेकर प्रस्तुति के सभी पक्षों से सम्बन्धित व्यय शामिल हैं। अत: जो भी संध्या शिविर आयोजित करें, अकादमी द्वारा इस आर्थिक पक्ष पर पहले ही जानकारी ली जानी चाहिए।
शायद कुछ नया या छोटी जगहों पर महिला कलाकारों को लेकर भी एक समस्या हो सकती है। इसका एक विकल्प यह हो सकता है कि दूसरे नगरों से शिविर तक की अवधि के लिए उन्हें बुलाया जा सके। लेकिन ऐसी स्थिति में उनके वहाँ रहने, आने-जाने आदि के व्यय को कौन वहन करेगा, इस विषय में अकादमी पहले ही निश्चित कर ले।
ऐसे शिविरों में प्राय: बिल्कुल नए लोग होते हैं जो शिविर की समाप्ति पर यह अपेक्षा रखते हैं कि उन्हें कोई प्रमाण-पत्र दिया जाए और उनकी यह अपेक्षा सही भी जान पड़ती क्योंकि यदि वे इसी दिशा में कुछ और आगे बढ़ना चाहेंगे तो इस तरह का प्रमाण-पत्र काफी सहायक हो सकता है।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि शिविर की अवधि के दौरान अकादमी द्वारा छोटे स्तर पर ही सही, एक अस्थायी पुस्तकालय की योजना को क्रियान्वित किया जा सके जिसमें कुछ नाटक और कुछ सैद्धांतिक पुस्तक उपलब्ध हों ताकि शिविर के दौरान एक रीडिंग सेशन के अन्तर्गत नए-पुराने नाटकों का पाठ करके उन्हें बहस का विषय बनाया जाए। प्रस्तुति के साथ-साथ इस तरह की समानान्तर गतिविधियों से शिविर को अधिक रोचक एवं जीवन्त बताया जा सकेगा।
इस प्रकार के शिविर में हुई प्रस्तुतियों को अकादमी द्वारा अलग-अलग स्थानों पर ले जाने की सुविधा होनी चाहिए। इससे दर्शक को कुछ न कुछ तो मिलेगा ही, स्वयं उन रंगकर्मियों की अपनी रंगदृष्टि में भी विस्तार होगा। अत: यह आवश्यक है कि इस प्रकार के शिविरों की परम्परा की जो शुरूआत अकादमी द्वारा हुई है उसे एक नियमित स्तर तक ले जाना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जहाँ एक व्यावसायिक रंगकर्मी के लिए अलग-थलग स्थानों पर नए-नए लोगों के साथ काम करने का अवसर उपलब्ध होता है वहाँ शौकिया रंगकर्मियों के लिए भी यह एक ऐसा अवसर प्रदान करेगा है जहाँ वे अपने रंगकर्मियों को अधिक गंभीरता एवं समझदारी के साथ निभाने की ओर कदम रख सकेंगे।
डी-305, सर्वोदय एनक्लेव,
श्रीअरविंद मार्ग,
नई दिल्ली-110017
-देवेन्द्र राज अंकुर
जयशंकर प्रसाद
ध्वनि-रूपक
आकाशदीप
[समुद्र का गर्जन, तूफान की हानि]
(बड़ी फुसफुसाहट की ध्वनि में वार्ता आरम्भ होती है।)
दृश्य-1
स्त्री स्वर-बन्दी
पुरुष स्वर-क्या है ? सोने दो।
स्त्री-मुक्त होना चाहते हो ?
पुरुष-अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।
स्त्री-फिर अवसर न मिलेगा।
पुरुष-बड़ा शीत है, कहीं से एक कम्बल लाकर कोई शीत से मुक्त करता।
स्त्री-आँधी की संभावना है। यही अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल हैं।
पुरुष-तो क्या तुम भी बंदी हो ?
स्त्री-हाँ ! धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं।
पुरुष-शस्त्र मिलेगा ?
स्त्री-हाँ, मिल जाएगा। पोत से संबद्ध रज्जु काट सकोगे ?
पुरुष-हाँ।
(तूफान की आवाज बढ़ जाती है। बीच में ध्वनि आती है-इधर से गाँठ खोलो-ठहरो, पैर के बंधन खोल दूँ।)
(विजय-भरे स्वर में) मेरे बंधन खुल गये, आ गले लग जा।
पुरुष-(सहसा)-अरे, क्या ? तुम स्त्री हो ?
स्त्री-क्या स्त्री होना कोई पाप है ?
पुरुष-शस्त्र कहाँ हैं ? तुम्हारा नाम !
स्त्री-चंदा ! ठहरो, वह नाविक सो रहा है, उसका कृपाण निकाल लो।
पथ-प्रदर्शक नाविक-‘आँधी आ गयी है-सावधान !’
(आपातसूचक तूर्य बजता है)
पुरुष-मुझे पकड़े रहो, मैं रज्जु काटता हूँ। (रस्सी काटने का स्वर) लो, हम मुक्त हो गये।
नाविक (पोत पर से)- अरे देखो, एक नाव टूटकर सागर में बह गयी।
(चंपा और पुरुष की हँसी)
पुरुष स्वर-क्या है ? सोने दो।
स्त्री-मुक्त होना चाहते हो ?
पुरुष-अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।
स्त्री-फिर अवसर न मिलेगा।
पुरुष-बड़ा शीत है, कहीं से एक कम्बल लाकर कोई शीत से मुक्त करता।
स्त्री-आँधी की संभावना है। यही अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल हैं।
पुरुष-तो क्या तुम भी बंदी हो ?
स्त्री-हाँ ! धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं।
पुरुष-शस्त्र मिलेगा ?
स्त्री-हाँ, मिल जाएगा। पोत से संबद्ध रज्जु काट सकोगे ?
पुरुष-हाँ।
(तूफान की आवाज बढ़ जाती है। बीच में ध्वनि आती है-इधर से गाँठ खोलो-ठहरो, पैर के बंधन खोल दूँ।)
(विजय-भरे स्वर में) मेरे बंधन खुल गये, आ गले लग जा।
पुरुष-(सहसा)-अरे, क्या ? तुम स्त्री हो ?
स्त्री-क्या स्त्री होना कोई पाप है ?
पुरुष-शस्त्र कहाँ हैं ? तुम्हारा नाम !
स्त्री-चंदा ! ठहरो, वह नाविक सो रहा है, उसका कृपाण निकाल लो।
पथ-प्रदर्शक नाविक-‘आँधी आ गयी है-सावधान !’
(आपातसूचक तूर्य बजता है)
पुरुष-मुझे पकड़े रहो, मैं रज्जु काटता हूँ। (रस्सी काटने का स्वर) लो, हम मुक्त हो गये।
नाविक (पोत पर से)- अरे देखो, एक नाव टूटकर सागर में बह गयी।
(चंपा और पुरुष की हँसी)
दृश्य-2
[अंतराल संगीत]
(समुद्र का गर्जन)
पुरुष-लो सबेरा हो रहा है ! सागर शांत है।
नाविक-अरे पोत कहाँ गया ? बंदी, तुम्हें मुक्त किसने किया ?
पुरुष-इस कृपाण ने !
नाविक-बुद्धगुप्त, मैं तुम्हें फिर बंदी बनाऊँगा।
बुद्धगुप्त-किसलिये नाविक ! पोताध्यक्ष मणिभद्र तो अतल जल में होगा। अब इस नौका का स्वामी मैं हूँ।
नाविक-तुम ! दस्युराज बुद्धगुप्त तुम ! कदापि नहीं ! अयं-मेरा कृपाण !
बुधगुप्त-मेरे पास है-चंपा इन्हें एक कृपाण दो।
नाविक-तो द्वंद्व युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाओ। जो विजयी होगा वही नौका का स्वामी होगा।
(कृपाण लड़ने की ध्वनि)
(नाविक गिरता है)
बुद्धगुप्त-बोलो, अब स्वीकार है या नहीं ?
नायक-मैं अनुचर हूँ, वरुण देव की शपथ। मैं विश्वासघात नहीं करूँगा। नाविकों, अब ये नौकाध्यक्ष हैं। इनकी आज्ञा का पालन करो।
बुधगुप्त-हम लोग कहाँ होंगे ?
नायक-बाली द्वीप से बहुत दूर, संभवत: एक नवीन द्वीप के पास, जहाँ हमारा बहुत कम आना-जाना होता है। सिंहल के वणिकों का वहाँ प्राधान्य है।
बुधगुप्त-कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे।
नायक-अनुकूल पवन मिलने पर दो दिन में, तब तक के लिये खाद्य का अभाव न हो जाए। नाविकों डाँड़ लगाओ, मैं पतवार सँभालता हूँ।
(डाँड़ लगाने की आवाज।–संगीत-दृश्य परिवर्तन)
पुरुष-लो सबेरा हो रहा है ! सागर शांत है।
नाविक-अरे पोत कहाँ गया ? बंदी, तुम्हें मुक्त किसने किया ?
पुरुष-इस कृपाण ने !
नाविक-बुद्धगुप्त, मैं तुम्हें फिर बंदी बनाऊँगा।
बुद्धगुप्त-किसलिये नाविक ! पोताध्यक्ष मणिभद्र तो अतल जल में होगा। अब इस नौका का स्वामी मैं हूँ।
नाविक-तुम ! दस्युराज बुद्धगुप्त तुम ! कदापि नहीं ! अयं-मेरा कृपाण !
बुधगुप्त-मेरे पास है-चंपा इन्हें एक कृपाण दो।
नाविक-तो द्वंद्व युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाओ। जो विजयी होगा वही नौका का स्वामी होगा।
(कृपाण लड़ने की ध्वनि)
(नाविक गिरता है)
बुद्धगुप्त-बोलो, अब स्वीकार है या नहीं ?
नायक-मैं अनुचर हूँ, वरुण देव की शपथ। मैं विश्वासघात नहीं करूँगा। नाविकों, अब ये नौकाध्यक्ष हैं। इनकी आज्ञा का पालन करो।
बुधगुप्त-हम लोग कहाँ होंगे ?
नायक-बाली द्वीप से बहुत दूर, संभवत: एक नवीन द्वीप के पास, जहाँ हमारा बहुत कम आना-जाना होता है। सिंहल के वणिकों का वहाँ प्राधान्य है।
बुधगुप्त-कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे।
नायक-अनुकूल पवन मिलने पर दो दिन में, तब तक के लिये खाद्य का अभाव न हो जाए। नाविकों डाँड़ लगाओ, मैं पतवार सँभालता हूँ।
(डाँड़ लगाने की आवाज।–संगीत-दृश्य परिवर्तन)
दृश्य-3
[नौका-समुद्र की लहरों की ध्वनि]
बुधगुप्त-चंपा, तुम्हें लोगों ने बंदी क्यों बनाया ?
चंपा-वणिक मणिभद्र की पाप-वासना ने।
बुधगुप्त-तुम्हारा घर कहाँ है ?
चंपा-जाह्नवी के तट पर, चंपा नगरी की क्षत्रिय बालिका हूँ। मेरे पिता इसी मणिभद्र के यहाँ नौकरी करते थे। माता का देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ इसी पोत पर रहने लगी। आठ बरस से समुद्र ही मेरा घर है। तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे पिता ने ही सात दस्युओं को मारकर जल-समाधि ले ली थी। एक मास हुआ, मैं इस नील जलनिधि पर निस्सहाय-अनाथ पड़ी हूँ। एक दिन मणिभद्र ने घृणित प्रस्ताव किया तो मैंने उसे गालियाँ दीं और उसने मुझे बंदी बना दिया-(क्रोध-भरी साँसें)
बुधगुप्त-मैं भी ताम्रलिप्तिका एक क्षत्रिय हूँ, परन्तु दुर्भाग्य से जलदस्यु बनकर जीवन बिताता हूँ। तो अब तुम क्या करोगी ?
चंपा-मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूँगी। वह जहाँ ले जाएगा, चाऊँगी।
(नायक जोर से चीखता है, लहरों के किनारे से टकराने की आवाज आती है।)
नायक-जमीन-जमीन ! बुधगुप्त, हम लोग द्वीप के पास पहुँच गये हैं।
बुधगुप्त-इस द्वीप का नाम क्या है ?
नायक-इसका तो कोई नाम नहीं है।
बुधगुप्त-ठीक है, तब हम इसे चंपा द्वीप कहेंगे।
(चंपा हँसती है।)
नायक-लंगर डालो ! आइये-उतरिये।
(शोर)
(संगीत-दृश्य परिवर्तन)
चंपा-वणिक मणिभद्र की पाप-वासना ने।
बुधगुप्त-तुम्हारा घर कहाँ है ?
चंपा-जाह्नवी के तट पर, चंपा नगरी की क्षत्रिय बालिका हूँ। मेरे पिता इसी मणिभद्र के यहाँ नौकरी करते थे। माता का देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ इसी पोत पर रहने लगी। आठ बरस से समुद्र ही मेरा घर है। तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे पिता ने ही सात दस्युओं को मारकर जल-समाधि ले ली थी। एक मास हुआ, मैं इस नील जलनिधि पर निस्सहाय-अनाथ पड़ी हूँ। एक दिन मणिभद्र ने घृणित प्रस्ताव किया तो मैंने उसे गालियाँ दीं और उसने मुझे बंदी बना दिया-(क्रोध-भरी साँसें)
बुधगुप्त-मैं भी ताम्रलिप्तिका एक क्षत्रिय हूँ, परन्तु दुर्भाग्य से जलदस्यु बनकर जीवन बिताता हूँ। तो अब तुम क्या करोगी ?
चंपा-मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूँगी। वह जहाँ ले जाएगा, चाऊँगी।
(नायक जोर से चीखता है, लहरों के किनारे से टकराने की आवाज आती है।)
नायक-जमीन-जमीन ! बुधगुप्त, हम लोग द्वीप के पास पहुँच गये हैं।
बुधगुप्त-इस द्वीप का नाम क्या है ?
नायक-इसका तो कोई नाम नहीं है।
बुधगुप्त-ठीक है, तब हम इसे चंपा द्वीप कहेंगे।
(चंपा हँसती है।)
नायक-लंगर डालो ! आइये-उतरिये।
(शोर)
(संगीत-दृश्य परिवर्तन)
दृश्य-4
[चंपा द्वीप पर]
उद्घोषक-पाँच वर्ष बाद।
चंपा-जया, दीप जला दिया ? अच्छा अब रस्सी दो, मैं आकाशदीप खीचूँगी। (खींचने की आवाज)।
चंपा-जया।
जया-जी क्या आज्ञा है रानीजी।
चंपा-महानाविक कब तक आयेंगे, बाहर पूछो लो। (बुधगुप्त आता है)
चंपा-(चौंक कर)-बुधगुप्त ! कब आये।
बुधगुप्त-बावली हो क्या ! तुम्हें स्वयं ये आकाशदीप टाँगने हैं ! तुम्हें ये काम करने हैं ?
चंपा-तो क्षीरनिधि निवासी अनंत की प्रसन्नता के लिये क्या दासियों से दीप जलवाऊँ।
बुधगुप्त-मुझे तो हँसी आती है। तुम दीप जलाकर किसे पथ दिखाना चाहता हो ? उसमें-किसे तुमने भगवान मान लिया है।
चंपा-हाँ, वह भी कभी भटकते हैं, भूलते हैं। नहीं तो बुधगुप्त को इतना ऐश्वर्य क्यों देते।
बुधगुप्त-तो बुरा क्या हुआ, चंपा द्वीप की अधीश्वरी महारानीजी।
चंपा-मुझे इस बंदीगृह से मुक्त करो। अब तो बाली, जावा, सुमात्रा का वाणिज्य तुम्हारे ही अधिकार में है महानाविक ! मुझे उन दिनों की याद सताती है जब तुम्हारे पास एक ही नाव थी और चंपा के उपकूल में पण्य नाद कर हम लोग सुखी जीवन बिताते थे-याद हैं चाँदनी रात में हमारी तरी कैसी थिरकती थी ? उस विजन अनंत में जब माँझी सो जाते थे, दीपक बुझ जाते थे, तो हम लोग भी पाल लपेट कर लेटे एक दूसरे का मुँह देखते थे-वह नक्षत्रों की मधुर छाया-
बुधगुप्त-लेकिन चंपा, अब उससे भी अच्छे ढंग से हम लोग विचर सकते हैं। तुम मेरी प्राणदात्री हो, मेरी सर्वस्व हो।
चंपा-नहीं-नहीं बुधगुप्त, तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी पर हृदय वैसा ही अकरुण हैं। तुम भगवान के नाम पर हँसी उड़ाते हो। नाविक, याद करो उस प्रचंड आँधी में प्रकाश की एक-एक किरण के लिये हम कितने व्याकुल थे। मेरे पिता नौकरी पर समुद्र में जाते थे-मेरी माता मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में भागीरथी तट पर बाँस के साथ टाँग देती थी और प्रार्थना करती थी-भगवान, मेरे पथभ्रष्ट नाविक को अंधकार में ठीक पथ पर ले चलना ! बरसों बाद पिताजी लौटते तो कहते-‘साध्वी, तेरी प्रार्थना से भगवान ने अचानक संकटों में मेरी रक्षा की।’ माँ, गद्गद् हो जाती। मेरी माँ ! आह नाविक, यह उसी की पुण्य स्मृति है। ‘मेरे वीर पिता की मृत्यु के निष्ठुर कारण जलदस्यु हट जाओ।’ (क्रोध-भरी फुफकारती है।)
बुधगुप्त(हँसकर)- यह क्या चंपा ! तुम अस्वस्थ हो जाओगी, चुप रहो !
(संगीत-दृश्य परिवर्तन)
चंपा-जया, दीप जला दिया ? अच्छा अब रस्सी दो, मैं आकाशदीप खीचूँगी। (खींचने की आवाज)।
चंपा-जया।
जया-जी क्या आज्ञा है रानीजी।
चंपा-महानाविक कब तक आयेंगे, बाहर पूछो लो। (बुधगुप्त आता है)
चंपा-(चौंक कर)-बुधगुप्त ! कब आये।
बुधगुप्त-बावली हो क्या ! तुम्हें स्वयं ये आकाशदीप टाँगने हैं ! तुम्हें ये काम करने हैं ?
चंपा-तो क्षीरनिधि निवासी अनंत की प्रसन्नता के लिये क्या दासियों से दीप जलवाऊँ।
बुधगुप्त-मुझे तो हँसी आती है। तुम दीप जलाकर किसे पथ दिखाना चाहता हो ? उसमें-किसे तुमने भगवान मान लिया है।
चंपा-हाँ, वह भी कभी भटकते हैं, भूलते हैं। नहीं तो बुधगुप्त को इतना ऐश्वर्य क्यों देते।
बुधगुप्त-तो बुरा क्या हुआ, चंपा द्वीप की अधीश्वरी महारानीजी।
चंपा-मुझे इस बंदीगृह से मुक्त करो। अब तो बाली, जावा, सुमात्रा का वाणिज्य तुम्हारे ही अधिकार में है महानाविक ! मुझे उन दिनों की याद सताती है जब तुम्हारे पास एक ही नाव थी और चंपा के उपकूल में पण्य नाद कर हम लोग सुखी जीवन बिताते थे-याद हैं चाँदनी रात में हमारी तरी कैसी थिरकती थी ? उस विजन अनंत में जब माँझी सो जाते थे, दीपक बुझ जाते थे, तो हम लोग भी पाल लपेट कर लेटे एक दूसरे का मुँह देखते थे-वह नक्षत्रों की मधुर छाया-
बुधगुप्त-लेकिन चंपा, अब उससे भी अच्छे ढंग से हम लोग विचर सकते हैं। तुम मेरी प्राणदात्री हो, मेरी सर्वस्व हो।
चंपा-नहीं-नहीं बुधगुप्त, तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी पर हृदय वैसा ही अकरुण हैं। तुम भगवान के नाम पर हँसी उड़ाते हो। नाविक, याद करो उस प्रचंड आँधी में प्रकाश की एक-एक किरण के लिये हम कितने व्याकुल थे। मेरे पिता नौकरी पर समुद्र में जाते थे-मेरी माता मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में भागीरथी तट पर बाँस के साथ टाँग देती थी और प्रार्थना करती थी-भगवान, मेरे पथभ्रष्ट नाविक को अंधकार में ठीक पथ पर ले चलना ! बरसों बाद पिताजी लौटते तो कहते-‘साध्वी, तेरी प्रार्थना से भगवान ने अचानक संकटों में मेरी रक्षा की।’ माँ, गद्गद् हो जाती। मेरी माँ ! आह नाविक, यह उसी की पुण्य स्मृति है। ‘मेरे वीर पिता की मृत्यु के निष्ठुर कारण जलदस्यु हट जाओ।’ (क्रोध-भरी फुफकारती है।)
बुधगुप्त(हँसकर)- यह क्या चंपा ! तुम अस्वस्थ हो जाओगी, चुप रहो !
(संगीत-दृश्य परिवर्तन)
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